अभिषेक उपाध्याय
वरिष्ठ पत्रकार
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अब चिट्ठियां नही आतीं
बस सन्न से आकर गुज़रते हैं
वाट्सएप्प के मैसेज
और मैसेजों के नोटिफिकेशन
दिन भर डिलीट करता हूँ
दिन भर पलटकर गिरते हैं
बड़ी बेशर्म सी टेक्नोलॉजी है!
चिट्ठियां कभी डिलीट नही होतीं थीं
सालहा-साल दराजों में पड़ी रहतीं थीं
हैंडराइटिंग के बगीचों में दमकते थे
मोहब्बत के फूल
महकती थी
यादों की रातरानी
अब तो हैंडराइटिंग नही मिलती
मोबाइलों में बस फॉन्ट मिलते हैं
बड़े खूबसूरत से दिखते हैं
पर महसूस नही होते
आज अरसे बाद चिट्ठियां लिखने बैठा हूँ
तो पते याद नही
नाम याद हैं
पर चेहरे याद नही
नम्बरों के जंगलों मे
भटक रहा हूँ जाने कब से!
वो आखिरी सी चिट्ठी थी
सुंदर से अक्षरों में
मेरा पता लिखा था
भीतर नही था कुछ भी
बस ‘अलविदा’ लिखा था
ज़ेहन के दरीचे में
अब भी पड़ी हुई है
वो आखिरी सी चिट्ठी
अब चिट्ठियां नही आतीं!
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